Friday, 17 September 2021

 सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे........ 


‘वासन्ती’ के मंच पे

      कवि-सम्मेलन हिन्दी साहित्य की वाचिक काव्य-परम्परा की सुरक्षा और संरक्षा का एक महत्वपूर्ण सारस्वत-पीठ रहा है। अपने समय में महाप्राण निराला ने भी ‘‘राम की शक्तिपूजा’’ जैसी रचना का मंच पर पाठ किया है, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के काव्य-पाठ को सुनने का आनन्द तो मैंने भी लिया है। अपनी तमाम विकृतियों और विसंगतियों के बावजूद आज भी कवि-सम्मेलन की मूलधारा उसी तरह पवित्र और वन्दनीय है जैसे भयावह प्रदूषण से आक्रान्त गंगा-धारा अभी कहीं-कहीं अभिषेक के योग्य भी है, आचमन के योग्य भी!

       परिपाश्र्व में कुछ मंचों पर मुझे सुनकर श्रद्धेय कविवर आत्मप्रकाश शुक्ल ने मुझे कानपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यिक संस्था ‘वासन्ती’ के आयोजन में मुझे बुलवाया। कोई औपचारिक आमन्त्रण मेरे पास नहीं था, मात्र आत्म जी की बात को प्रमाण मानकर मैं यह यात्रा करने निकला। यह घटना पिछली शताब्दी के आठवें दशक की है। फ़र्रुख़ाबाद रेलवे स्टेशन पर क़ायमगंज से आ रहे युवा कवि पवन चैहान से मेरी भेंट हुई। उसे भी आत्म दादा ने इसी आयोजन में पहुँचने को कहा था। कुछ आशाएँ, कुछ आशंका के साथ हम लोग सफ़र कर रहे थे। आचानक विचार आया - इस टेªन में संभव है इसी आयोजन हेतु कोई और कवि भी चल रहा हो। हम लोग तब कवि-समाज के बहुत परिचित नहीं थे। फिर भी, हर स्टेशन पर टेªन रुकने पर एक-एक डिब्बे में जाकर लोगों को ग़ौर से देखते और अनुमान लगाते कि इनमें कौन व्यक्ति कवि हो सकता है! हमें देर तक ऐसा कोई भी नहीं दिखा जो हृदय को सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करे! कानपुर स्टेशन से एक-दो स्टेशन पूर्व हमारी दृष्टि खिड़की के पास बैठे एक आत्मलीन शोभन व्यक्तित्व पर पड़ी। कहीं दूर क्षितिज की तरफ़ देखता हुआ वह व्यक्तित्व बहुत धीमे स्वर में कुछ गुनगुना रहा था, उसका एक हाथ बार-बार अपने घुँघराले बालों को सहज ही सहलाने लगता था। हम दोनों चुपचाप उसके पास जाकर बैठ गये। कानपुर आते-आते वार्ता-क्रम प्रारंभ हुआ और हमे पता लगा कि हम जिसके सरल-तरल व्यक्तित्व से प्रभावित हो जिसके पास जाकर बैठ गये वह सुप्रसिद्ध गीतकार किशन सरोज हैं। सरोज जी भी ‘वासन्ती’ के कार्यक्रम में ही जा रहे थे। हम दोनों का परिचय पाकर वह प्रसन्न हुए, उनकी वार्ता-भंगिमा में अकृत्रिम आत्मीयता की झलक थी। अन्ततः कानपुर आया किन्तु स्टेशन पर आत्मदादा को न पाकर हम परेशान हो उठे! उन्होंने हमसे कह रखा कि वह कानपुर रेलवे स्टेशन पर हमें मिल जायेंगे। हमें न आयोजन-स्थल के विषय में पता था, न आवास-व्यवस्था के बारे में। हम समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, तब आज जैसी मोबाइल फ़ोन सुविधाएँ नहीं थीं!

       हमें परेशान देखकर किशन सरोज जी हमारे पास आये और कहा कि आत्म जी नहीं आ सके तो क्या हुआ, मैं भी तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। मुझे पता है कि कहाँ ठहरने की व्यवस्था है, तुम लोग मेरे साथ चलो। हम दोनों किशन जी के साथ हो लिये। जहाँ ठहराया गया था वहाँ से उस समय तब लगभग सभी कवि आयोजन स्थल के लिये प्रस्थान कर चुके थे। शायद हमारी टेªन विलम्ब से थी! किशन जी ने अपने और हमारे लिये भोजन मँगवाया किन्तु हम लोग संकोचवश भोजन नहीं कर पा रहे थे, हमें लग रहा था कि हम वहाँ अनामन्त्रित अतः अवांछित तत्व हैं। हम दोनों ने चुपचाप अपनी जेब के पैसे गिने। हम आसानी से अगली टेªन से घर लौट सकते थे। हमने निर्णय किया कि यदि आयोजन-स्थल पर भी आत्मदादा नहीं हुए तो हम लोग किसी से कुछ कहे बिना स्टेशन लौट जायेंगे और वहीं अपनी टेªन का इन्तज़ार करेंगे। इसी बीच में आयोजन-समिति के किसी सदस्य ने आकर किशन सरोज का अभिवादन किया और फिर हमारे पास आकर हमारा परिचय पाना चाहा। बड़े ही संकोच से मैंने उन्हें अपना और पवन चैहान का नाम बताया। उनके मुख से निकला अरे, आप लोग यहाँ हैं! आत्म जी आप दोनों को रेलवे स्टेशन पर न पाकर बहुत परेशान हो रहे हैं और अम्बर जी, आपको तो आज के मंच का संचालन भी करना है। आइये, कृपया मेरे साथ आइये!

       उन सज्जन के साथ हम आयोजन-स्थल पर पहुँचे जहाँ कार्यक्रम की प्रारम्भिक औपचारिकताएँ पूर्ण की जा रही थीं। वहाँ आत्मदादा से भेंट हुई और हमें जैसे स्वस्ति तथा आश्वस्ति की उपलब्धि हो गई। इसी आयोजन में मैंने वरेण्य नवगीतकार उमाकान्त मालवीय जी को पहली बार सुना, आत्म जी की अपार लोकप्रियता के सम्मोहन का साक्षात्कार किया, चित्तौड़ से पधारे ओजस्विता के उद्गाता नरेन्द्र मिश्र जी के काव्य-पाठ का आनन्द लिया और कवि-सम्मेलन के मंच के अनेकानेक रचनाकारों के साथ आत्मीयता की डोर से जुड़ गया। उस दिन पवन ने अपने एक गीत से अद्भुत प्रभाव छोड़ा था -

फ़ुर्सत हो तो मेरा भी दुख सुन लो

मैं बड़ी दूर से चलकर आया हूँ।

       जो राह मुझे इस घाटी तक लाई,

       वो राह नहीं थी बाँह तुम्हारी थी।

चाँदनी समझ कर जिसको पीता था,

अब पता चला वो छाँह तुम्हारी थी।

       तुम बर्फीली चोटी से मत मिलना

       मैं उसी शिखर से गलकर आया हूँ

              आत्मदादा उस समय लोकप्रियता के चरम शिखर पर थे और हर कवि-सम्मेलन में उन्हें अपने एक प्रसिद्ध गीत को पढ़ना ही पड़ता था -

चीन छीन देश का गुलाब ले गया

ताशकंद में वतन का लाल सो गया।

       हम सुलह की शक्ल ही सँवारते रहे,

       जीतने के बाद बाजी हारते रहे।

              किशन सरोज जी को मैंने बड़ी उत्सुकता से सुना था और उनके स्वर में मुझे एक संवेदनशील गीतकार की व्यथा-कथा की भावार्द्रता महसूस हो रही थी -

हम तो ठहरे निपट अभागे

आधे सोये, आधे जागे।

       थोड़े सुख के लिये उम्र भर

       गाते फिरे भीड़ के आगे।

क्हाँ-कहाँ हम कितनी बार हुए अपमानित

इसका सही हिसाब हमारे पास नहीं है।

       नागफनी आँचल में बाँध सको तो आना

       धागों बिंधे गुलाब हमारे पास नहीं।

              मुझे याद है, उस दिन आत्म दादा ने बड़े ही भावोच्छल स्वर के साथ मेरा परिचय देते हुए मुझे संचालन हेतु आमन्त्रित किया थ और फिर मेरे पहले ही सम्बोधन के साथ रसज्ञ श्रोता-समाज तथा अभिवन्दित सारस्वत-मंच मेरे साथ भावमय ढंग से जुड़ गया था, आज तक उसी प्रकार जुड़़ा हुआ है। मेरी नियति ने आत्मदा को माध्यम बनाकर मुझे साहित्य के वासन्ती-मंच पर एक विशिष्ट भूमिका निभाने के लिये प्रस्तुत कर दिया था। अनुभवों का एक विराट् यात्रा-पथ अब मुझे आगे बढ़ने को आमन्त्रित कर रहा था।

- डाॅ॰ शिव ओम अम्बर

Saturday, 27 March 2021

फागुन आया गांव में



दहकी-दहकी दोपहर, बहकी-बहकी रात,
फागुन आया गांव में, लेकर ये सौगात।

प्रकृति में चारों तरफ उत्सव का माहौल है, फागुन आ गया है और अनंग अपने रंग में है। उसके पुष्प-धनुष से शरों का सन्धाान होने लगा है। मन के आकाश में खिलते हुए इन्द्रधनुष और दृष्टि के वातास में बिखरते हुए रंग साहित्य के दर्पण में भी प्रतिच्छवित हो रहे हैं -

खनक उठे हैं लाज के, बागी बाजूबन्द,
संयम के हर छन्द को, होने दो स्वच्छन्द।

आम के बौर को देखकर सहृदय कवि को प्रतीत होता है कि सहकार के ये वृक्ष गुलाबी शंख बजा रहे हैं और उनकी ध्वनि को सुनकर नौजवानों के दिलो की किताबों में सहेजकर रखे गए मोरपंख बाहर आने को अकुला उठे हैं। कभी उसे ऐसा भी लगता है कि फागुन के सैलाब ने समग्र परिवेश को अपने में निमज्जित कर लिया है और रातें रागवती तथा दिवस परागवन्त हो उठे हैं -

चढ़ा गांव दर गांव यूं, ये सैलाबी फाग,
राग-राग है रात हर, प्रात पराग-पराग।

हर कदम पर मोहक बिम्बों की चित्र-वीथी सजी है। चांदनी महुए की गंध की तरह प्राणों में उतरती है तो धूप नवोढ़ा की तरह चेतना में झिलमिलाती है -

मौसम की उच्छ्वास में है महुए की गन्ध,
टूट रहेंगे आज फिर संयम के तटबन्ध।
तथा -
भरे कलश में देह के, क्षीरसिन्धु सा रूप,
बैठी है वट के तले, घूंघट काढ़े धूप।

माथे पर गुलाल का टीका लगाये, आंखों में आत्मीयता भरी दृष्टि का उजास लिये, स्वागत में फैली बांहें और अधरों पर दीप्तिमती मुस्कान लिए उत्सव-पुरुष मुझे होलिकोत्सव के साकार उल्लास की तरह प्रतीत होता है। यश मालवीय याद आते हैं -

उत्सव के दिन आ गए, हंसे खेत-खपरैल,
एक हंसी में धुल गया, मन का सारा मैल।

उत्सव में ‘सव’ शब्द यज्ञ का वाचक है और ‘उत्’ उपसर्ग उध्र्वगमन का प्रतीक होता है। जो हमें ऊंचाई की तरफ न ले जाए, उदात्त न बनाए और यज्ञ अर्थात् समष्टि के हित से न जोड़े वह कैसा उत्सव ? होली अहम् की आहुति देने का, विराट के आलिंगन का और आत्मविसर्जन का महत् पर्व है। रंगों के माध्यम से जब हम स्वर्ग के इन्द्रधनुष को पृथ्वी पर उतार लाते हैं, जलती हुई होली में नवान्न की आहुति देते हुए जब हम व्यष्टि-चेतना को समष्टि चेतना से जोड़ते हैं और एक-दूसरे को बांहों में भरते हुए जब हम ‘एकोऽहम् बहुस्याम’ के लीलाभाव का साक्षात्कार करते हैं, तो हम सच्चे अर्थों में उत्सव की अर्थ-ध्वनियांे को पकड़ पाते हैं अन्यथा हर उत्सव एक औपचारिकता और हर अनुष्ठान एक कर्मकाण्ड बनकर रह जाता है। स्व. नजीर बनारसी कहा करते थे -

पूरा बरस पड़ा है समझ-बूझ के लिए,
इक दिन गुजार लीजिए दीवानेपन के साथ।
जब दिल न मिलने पाये तो मिलने से फायदा,
दिल का मिलन जरूरी है होली-मिलन के साथ।

फागुन की चरमोपलब्धि है होलिकोत्सव और रंग के इस त्योहार की सार्थकता तभी है जब मात्र बाहरी वस्त्र ही रंजित न हों, हमारी व्यक्ति सत्ता की पंचरंग चुनरी भी रंगों से सराबोर हो जाए और ये रंग इतने 
गाढे चढ़ें कि न ये साल भर छूटं और न इन्हें छुड़ाने का मन हो।

 डाॅ॰ शिव ओम अम्बर



Monday, 15 February 2021

वीणा वादिनी वर दे


                                           
वसंत पंचमी भगवती सरस्वती का आविर्भाव दिवस है।  महाप्राण  निराला ने  इसी तिथि को अपनी ही नहीं हर कवि  की भावमयी जन्मतिथि घोषित किया था. उनकी सुप्रसिद्ध वाणी -वंदना यद्यपि परतंत्रता के कालखंड में लिखी गई थी।  किन्तु उसमे नवीन भारत के भव्य और दिव्य स्वरूप की परिकल्पना करते हुए प्रार्थना की गई थी -

नव गति नव लय  ताल छंद नव 
नवल कंठ नव जलद  मन्द्र  रव 
नव नभ विहग वृन्द को 
नव पर नव स्वर दे -
वीणा वादिनी वर दे। 

वीणा वादिनी सरस्वती का रूप जीवन को सही ढंग से जीने का दीक्षा मन्त्र है।  उनके एक हाथ में जपमाला है जो सतत साधना की प्रतीक है         ( यज्ञाना जपयज्ञोSस्मि - श्री  मद्भाभगवतगीता ) और एक हाथ में पुस्तक है जो शब्द की सत्ता और महत्ता को निरूपित करती है।  उनकी वीणा संगीत की सुप्रतिष्ठा को ध्वनित करती है।  सरस्वती नाद  ब्रह्म का कलात्मक रेखांकन है। वह सिद्धि रूप भी है और साधना - पथ की निर्देशिका भी।  जल-थल  और नभ में संचरण करने में समर्थ उनका वाहन हंस नीर -क्षीर विवेक का रूपक है तो उनका श्वेत कमलासन जीवन की सात्विक भूमिका और भंगिमा का रूपायन है।  सरस्वती का अवतरण पर्व निःशब्द  विश्व में शब्द की रसवंत सत्ता का स्वस्तिमय संघोष है। 
स्वयं वसंत कुसुमों का आकर अर्थात आश्रय -स्थल है। भगवन श्री कृष्ण ने गीता में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए  स्वयं को ऋतुओं में वसंत घोषित किया है। 
पुष्पों का परिसंग्रह वसंत अपनी अस्मिता में एक जीवन दर्शन है क्योंकि एक पुष्प मात्र पुष्प ही नहीं है, वह अपने आप में एक लम्बी कथा - यात्रा का अंतिम अध्याय है। बीज की कामना अंकुर बनती है, अंकुर की आराधना वृंत में बदलती है, वृं त की उपासना  पुष्प का रूप ग्रहण करती है और पुष्प की प्रार्थना सुंगध बनकर वतास मा व्याप्त हो जाती है। प्रकृति की महत लीला में पुष्प कामना के प्रार्थना में परिवर्तित होने का जीवंत दृष्टांत और पुष्पों के संभार का आगार बनने वाला वसंत वस्तुतः प्रकृति के अभिनंदन का अक्षर - पर्व है। वसंत और वागीश्वरी दोनों पर ही हिन्दी साहित्य में प्रभूत मात्रा में रचनाएं है।  बनन में  बागन में बरयों वसंत है से लेकर वीरों का कैसा हो वसंत  तक अनेकानेक  उदगार अपनी विविधवर्णी भंगिमाओं से साहित्य के भंडार को समृद्ध करने वाली उद्भ भावनाएं है। सरस्वती - वंदना से तो लगभग हर कवि अपनी काव्य - यात्रा प्रारंभ करता ही है। इधर लिखी गई  वंदना ओ में परम्परागत स्वर से अलग हटकर भी कुछ भाव व्यंजनाएं ऐसी सामने आई है जो रेखांकित करने योग्य है।श्रद्धेय रमानाथ अवस्थी जी की अभिव्यक्ति है - 

वीणा को छोड़ 
आज छेड़ अग्नि वीणा 
कोई तो कहीं नई आज गुनगुनाएं।

कविवर बुद्धिनाथ मिश्र की सरस्वती वंदना वाणी को एक वत्सला वृद्धा माँ के रूप में चित्रित करती हुई एक अलग ही बिम्ब उभारती है  -

अपनी चिट्ठी बूढी माँ मुझसे लिखवाती है 
जो भी मै लिखता हूँ 
वह कविता हो जाती है। 
कभी -कभी जब भूल विधाता की 
मुझको छेड़े ,
मुझे मुरझता देख 
दिखाती सपने बहुतेरे 
कहती तुम हो युग के सर्जक 
बेहतर ब्रह्मा से 
नीर- क्षीर करने वाले 
हो तुम्ही हंस मेरे। 
फूलों से भी कोमल 
शब्दों से सहलाती है 
मुझे बिठाकर राजहंस पर 
सैर कराती है। 

आज इन्ही पंक्तियों के साथ माँ को प्रणाम करता हूँ। 


                                                                        डॉ  शिव ओम  अम्बर