वसंत पंचमी भगवती सरस्वती का आविर्भाव दिवस है। महाप्राण निराला ने इसी तिथि को अपनी ही नहीं हर कवि की भावमयी जन्मतिथि घोषित किया था. उनकी सुप्रसिद्ध वाणी -वंदना यद्यपि परतंत्रता के कालखंड में लिखी गई थी। किन्तु उसमे नवीन भारत के भव्य और दिव्य स्वरूप की परिकल्पना करते हुए प्रार्थना की गई थी -
नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ विहग वृन्द को
नव पर नव स्वर दे -
वीणा वादिनी वर दे।
वीणा वादिनी सरस्वती का रूप जीवन को सही ढंग से जीने का दीक्षा मन्त्र है। उनके एक हाथ में जपमाला है जो सतत साधना की प्रतीक है ( यज्ञाना जपयज्ञोSस्मि - श्री मद्भाभगवतगीता ) और एक हाथ में पुस्तक है जो शब्द की सत्ता और महत्ता को निरूपित करती है। उनकी वीणा संगीत की सुप्रतिष्ठा को ध्वनित करती है। सरस्वती नाद ब्रह्म का कलात्मक रेखांकन है। वह सिद्धि रूप भी है और साधना - पथ की निर्देशिका भी। जल-थल और नभ में संचरण करने में समर्थ उनका वाहन हंस नीर -क्षीर विवेक का रूपक है तो उनका श्वेत कमलासन जीवन की सात्विक भूमिका और भंगिमा का रूपायन है। सरस्वती का अवतरण पर्व निःशब्द विश्व में शब्द की रसवंत सत्ता का स्वस्तिमय संघोष है।
स्वयं वसंत कुसुमों का आकर अर्थात आश्रय -स्थल है। भगवन श्री कृष्ण ने गीता में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए स्वयं को ऋतुओं में वसंत घोषित किया है।
पुष्पों का परिसंग्रह वसंत अपनी अस्मिता में एक जीवन दर्शन है क्योंकि एक पुष्प मात्र पुष्प ही नहीं है, वह अपने आप में एक लम्बी कथा - यात्रा का अंतिम अध्याय है। बीज की कामना अंकुर बनती है, अंकुर की आराधना वृंत में बदलती है, वृं त की उपासना पुष्प का रूप ग्रहण करती है और पुष्प की प्रार्थना सुंगध बनकर वतास मा व्याप्त हो जाती है। प्रकृति की महत लीला में पुष्प कामना के प्रार्थना में परिवर्तित होने का जीवंत दृष्टांत और पुष्पों के संभार का आगार बनने वाला वसंत वस्तुतः प्रकृति के अभिनंदन का अक्षर - पर्व है। वसंत और वागीश्वरी दोनों पर ही हिन्दी साहित्य में प्रभूत मात्रा में रचनाएं है। बनन में बागन में बरयों वसंत है से लेकर वीरों का कैसा हो वसंत तक अनेकानेक उदगार अपनी विविधवर्णी भंगिमाओं से साहित्य के भंडार को समृद्ध करने वाली उद्भ भावनाएं है। सरस्वती - वंदना से तो लगभग हर कवि अपनी काव्य - यात्रा प्रारंभ करता ही है। इधर लिखी गई वंदना ओ में परम्परागत स्वर से अलग हटकर भी कुछ भाव व्यंजनाएं ऐसी सामने आई है जो रेखांकित करने योग्य है।श्रद्धेय रमानाथ अवस्थी जी की अभिव्यक्ति है -
वीणा को छोड़
आज छेड़ अग्नि वीणा
कोई तो कहीं नई आज गुनगुनाएं।
कविवर बुद्धिनाथ मिश्र की सरस्वती वंदना वाणी को एक वत्सला वृद्धा माँ के रूप में चित्रित करती हुई एक अलग ही बिम्ब उभारती है -
अपनी चिट्ठी बूढी माँ मुझसे लिखवाती है
जो भी मै लिखता हूँ
वह कविता हो जाती है।
कभी -कभी जब भूल विधाता की
मुझको छेड़े ,
मुझे मुरझता देख
दिखाती सपने बहुतेरे
कहती तुम हो युग के सर्जक
बेहतर ब्रह्मा से
नीर- क्षीर करने वाले
हो तुम्ही हंस मेरे।
फूलों से भी कोमल
शब्दों से सहलाती है
मुझे बिठाकर राजहंस पर
सैर कराती है।
आज इन्ही पंक्तियों के साथ माँ को प्रणाम करता हूँ।
डॉ शिव ओम अम्बर