सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे........
‘वासन्ती’ के मंच पे
कवि-सम्मेलन हिन्दी साहित्य की वाचिक काव्य-परम्परा की सुरक्षा और संरक्षा का एक महत्वपूर्ण सारस्वत-पीठ रहा है। अपने समय में महाप्राण निराला ने भी ‘‘राम की शक्तिपूजा’’ जैसी रचना का मंच पर पाठ किया है, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के काव्य-पाठ को सुनने का आनन्द तो मैंने भी लिया है। अपनी तमाम विकृतियों और विसंगतियों के बावजूद आज भी कवि-सम्मेलन की मूलधारा उसी तरह पवित्र और वन्दनीय है जैसे भयावह प्रदूषण से आक्रान्त गंगा-धारा अभी कहीं-कहीं अभिषेक के योग्य भी है, आचमन के योग्य भी!
परिपाश्र्व में कुछ मंचों पर मुझे सुनकर श्रद्धेय कविवर आत्मप्रकाश शुक्ल ने मुझे कानपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यिक संस्था ‘वासन्ती’ के आयोजन में मुझे बुलवाया। कोई औपचारिक आमन्त्रण मेरे पास नहीं था, मात्र आत्म जी की बात को प्रमाण मानकर मैं यह यात्रा करने निकला। यह घटना पिछली शताब्दी के आठवें दशक की है। फ़र्रुख़ाबाद रेलवे स्टेशन पर क़ायमगंज से आ रहे युवा कवि पवन चैहान से मेरी भेंट हुई। उसे भी आत्म दादा ने इसी आयोजन में पहुँचने को कहा था। कुछ आशाएँ, कुछ आशंका के साथ हम लोग सफ़र कर रहे थे। आचानक विचार आया - इस टेªन में संभव है इसी आयोजन हेतु कोई और कवि भी चल रहा हो। हम लोग तब कवि-समाज के बहुत परिचित नहीं थे। फिर भी, हर स्टेशन पर टेªन रुकने पर एक-एक डिब्बे में जाकर लोगों को ग़ौर से देखते और अनुमान लगाते कि इनमें कौन व्यक्ति कवि हो सकता है! हमें देर तक ऐसा कोई भी नहीं दिखा जो हृदय को सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करे! कानपुर स्टेशन से एक-दो स्टेशन पूर्व हमारी दृष्टि खिड़की के पास बैठे एक आत्मलीन शोभन व्यक्तित्व पर पड़ी। कहीं दूर क्षितिज की तरफ़ देखता हुआ वह व्यक्तित्व बहुत धीमे स्वर में कुछ गुनगुना रहा था, उसका एक हाथ बार-बार अपने घुँघराले बालों को सहज ही सहलाने लगता था। हम दोनों चुपचाप उसके पास जाकर बैठ गये। कानपुर आते-आते वार्ता-क्रम प्रारंभ हुआ और हमे पता लगा कि हम जिसके सरल-तरल व्यक्तित्व से प्रभावित हो जिसके पास जाकर बैठ गये वह सुप्रसिद्ध गीतकार किशन सरोज हैं। सरोज जी भी ‘वासन्ती’ के कार्यक्रम में ही जा रहे थे। हम दोनों का परिचय पाकर वह प्रसन्न हुए, उनकी वार्ता-भंगिमा में अकृत्रिम आत्मीयता की झलक थी। अन्ततः कानपुर आया किन्तु स्टेशन पर आत्मदादा को न पाकर हम परेशान हो उठे! उन्होंने हमसे कह रखा कि वह कानपुर रेलवे स्टेशन पर हमें मिल जायेंगे। हमें न आयोजन-स्थल के विषय में पता था, न आवास-व्यवस्था के बारे में। हम समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, तब आज जैसी मोबाइल फ़ोन सुविधाएँ नहीं थीं!
हमें परेशान देखकर किशन सरोज जी हमारे पास आये और कहा कि आत्म जी नहीं आ सके तो क्या हुआ, मैं भी तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। मुझे पता है कि कहाँ ठहरने की व्यवस्था है, तुम लोग मेरे साथ चलो। हम दोनों किशन जी के साथ हो लिये। जहाँ ठहराया गया था वहाँ से उस समय तब लगभग सभी कवि आयोजन स्थल के लिये प्रस्थान कर चुके थे। शायद हमारी टेªन विलम्ब से थी! किशन जी ने अपने और हमारे लिये भोजन मँगवाया किन्तु हम लोग संकोचवश भोजन नहीं कर पा रहे थे, हमें लग रहा था कि हम वहाँ अनामन्त्रित अतः अवांछित तत्व हैं। हम दोनों ने चुपचाप अपनी जेब के पैसे गिने। हम आसानी से अगली टेªन से घर लौट सकते थे। हमने निर्णय किया कि यदि आयोजन-स्थल पर भी आत्मदादा नहीं हुए तो हम लोग किसी से कुछ कहे बिना स्टेशन लौट जायेंगे और वहीं अपनी टेªन का इन्तज़ार करेंगे। इसी बीच में आयोजन-समिति के किसी सदस्य ने आकर किशन सरोज का अभिवादन किया और फिर हमारे पास आकर हमारा परिचय पाना चाहा। बड़े ही संकोच से मैंने उन्हें अपना और पवन चैहान का नाम बताया। उनके मुख से निकला अरे, आप लोग यहाँ हैं! आत्म जी आप दोनों को रेलवे स्टेशन पर न पाकर बहुत परेशान हो रहे हैं और अम्बर जी, आपको तो आज के मंच का संचालन भी करना है। आइये, कृपया मेरे साथ आइये!
उन सज्जन के साथ हम आयोजन-स्थल पर पहुँचे जहाँ कार्यक्रम की प्रारम्भिक औपचारिकताएँ पूर्ण की जा रही थीं। वहाँ आत्मदादा से भेंट हुई और हमें जैसे स्वस्ति तथा आश्वस्ति की उपलब्धि हो गई। इसी आयोजन में मैंने वरेण्य नवगीतकार उमाकान्त मालवीय जी को पहली बार सुना, आत्म जी की अपार लोकप्रियता के सम्मोहन का साक्षात्कार किया, चित्तौड़ से पधारे ओजस्विता के उद्गाता नरेन्द्र मिश्र जी के काव्य-पाठ का आनन्द लिया और कवि-सम्मेलन के मंच के अनेकानेक रचनाकारों के साथ आत्मीयता की डोर से जुड़ गया। उस दिन पवन ने अपने एक गीत से अद्भुत प्रभाव छोड़ा था -
फ़ुर्सत हो तो मेरा भी दुख सुन लो
मैं बड़ी दूर से चलकर आया हूँ।
जो राह मुझे इस घाटी तक लाई,
वो राह नहीं थी बाँह तुम्हारी थी।
चाँदनी समझ कर जिसको पीता था,
अब पता चला वो छाँह तुम्हारी थी।
तुम बर्फीली चोटी से मत मिलना
मैं उसी शिखर से गलकर आया हूँ
आत्मदादा उस समय लोकप्रियता के चरम शिखर पर थे और हर कवि-सम्मेलन में उन्हें अपने एक प्रसिद्ध गीत को पढ़ना ही पड़ता था -
चीन छीन देश का गुलाब ले गया
ताशकंद में वतन का लाल सो गया।
हम सुलह की शक्ल ही सँवारते रहे,
जीतने के बाद बाजी हारते रहे।
किशन सरोज जी को मैंने बड़ी उत्सुकता से सुना था और उनके स्वर में मुझे एक संवेदनशील गीतकार की व्यथा-कथा की भावार्द्रता महसूस हो रही थी -
हम तो ठहरे निपट अभागे
आधे सोये, आधे जागे।
थोड़े सुख के लिये उम्र भर
गाते फिरे भीड़ के आगे।
क्हाँ-कहाँ हम कितनी बार हुए अपमानित
इसका सही हिसाब हमारे पास नहीं है।
नागफनी आँचल में बाँध सको तो आना
धागों बिंधे गुलाब हमारे पास नहीं।
मुझे याद है, उस दिन आत्म दादा ने बड़े ही भावोच्छल स्वर के साथ मेरा परिचय देते हुए मुझे संचालन हेतु आमन्त्रित किया थ और फिर मेरे पहले ही सम्बोधन के साथ रसज्ञ श्रोता-समाज तथा अभिवन्दित सारस्वत-मंच मेरे साथ भावमय ढंग से जुड़ गया था, आज तक उसी प्रकार जुड़़ा हुआ है। मेरी नियति ने आत्मदा को माध्यम बनाकर मुझे साहित्य के वासन्ती-मंच पर एक विशिष्ट भूमिका निभाने के लिये प्रस्तुत कर दिया था। अनुभवों का एक विराट् यात्रा-पथ अब मुझे आगे बढ़ने को आमन्त्रित कर रहा था।
- डाॅ॰ शिव ओम अम्बर