Saturday, 14 May 2022

 मेरी कविता के दामन पे कोई दाग़ नहीं पाओगे



कविवर कमल किशोर श्रमिक से मेरी भेंट फ़र्रुख़ाबाद की एक कवि-गोष्ठी में हुई थी। फ़र्रु. की सावित्री संस्कृत पाठशाला में आयोजित एक विशाल गोष्ठी में संचालन का दायित्व सम्हाल रहे मुझे कार्यक्रम के मध्य में ही सूचना दी गई कि संयोगवश आज हमारे मध्य कानपुर से पधारे एक अतिथि कवि भी हैं। मैंने उन्हें काव्यपाठ के लिये आमन्त्रित किया और उस नवागत की रचनाओं ने आकाश में गर्जना करते बादलों के मध्य कड़कती विद्युत-रेखाओं की तरह सबको अभिभूत भी किया पराभूत भी। गोष्ठी समाप्त होने के बाद स्नेहपूर्ण वार्तालाप करते हुए हम कुछ लोग उस नौजवान को विदा करने रेलवे स्टेशन तक गये और वहाँ परिचय के क्रम में एक नया रहस्योद्घाटन हुआ! जिसकी छरहरी देहयष्टि और कमनीय छवि के कारण हम एक नवागन्तुक रचनाकार समझ कर कुछ-कुछ प्रगल्भता के साथ बातचीत कर रहे थे, वह व्यक्ति प्रतिभा और साधना में ही नहीं आयु में भी हमारी युवा-मण्डली से लगभग एक दशक बड़ा निकला! हम सबने उन्हें क्षमायाचना के साथ प्रणाम किया और उस दिन से अनायास वह हमारे अघोषित नायक बन गये। उन दिनों आदरणीया भाभीजी यहाँ प्राथमिक शिक्षा विभाग में एक अधिकारी थीं और श्रमिक जी यायावर जीवन व्यतीत करते हुए स्टेशनरी के एजेण्ट का काम करते थे और विचारों में क्रान्ति, व्यवहार में फक्क्ड़पन तथा श्वास-श्वास में कविता जी रहे थे। उनका लगभग हर सप्ताह फ़र्रु. आना होता ही रहता था और उनकी अनन्य आत्मीयता ने शनैः शनैः हमें अपने परिवार के सदस्यों में परिगणित कर लिया था। हम अक्सर उनके घर जाया करते थे, अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाते थे और हमारे समूह में वह जिसकी अभिव्यक्ति की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कर देते थे वह उस दिन हममें वरेण्य हो जाता था और स्वाभाविक ही शेष लोगों की ईष्र्या का पात्र भी।

उन दिनों मुझे कवि-सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा था अतः मेरे अवचेतन में कोई उच्चता-ग्रन्थि बन रही थी। सौभाग्य से, उसी समय श्रमिक जी का परिवेश में प्रवेश हुआ और उनके व्यक्तित्व तथा कृतित्व के आग्नेय संस्पर्श से वह गाँठ तुरन्त पिघल गई और मंच पर निरन्तर संचरण करते हुए भी मैं मिथ्या अहम् का आखेट बनने से बच गया।
श्रमिक जी के व्यक्तित्व का ऋण-बिन्दु कहा जा सकता है - उनका मद्यपान। मुझे पता है कि कभी कवि-सम्मेलनों का आमन्त्रण आने पर वह आसन्न कार्यक्रम में प्राप्त होने वाली संभावित अर्थराशि का आयोजन में जाने से पहले ही ‘‘सांयकालीन आचमन’’ में उपयोग कर चुके होते थे! प्रायः कवि-सम्मेलन के दूसरे चक्र के आते-आते वह काव्य-पाठ की स्थिति में ही नहीं रह जाते थे। उनके स्वभाव की अक्खड़ता इस बात से भी प्रकट होती थी कि वह मंच पर ही आयोजक की किसी ग़लती के लिये उसकी सार्वजनिक भत्र्सना कर सकते थे। लोग इसी कारण उनसे डरते थे। कवि-सम्मेलनों में तालमेल बिठाकर चल पाना, अख़बारी दफ़्तरों में (जहाँ कुछ दिनों उन्होंने काम किया) व्यावहारिक समीकरणों को समझ पाना उनके लिये कभी संभव नहीं हुआ। पारिवारिक सन्दर्भों में गाहे-बगाहे अपने प्रेम का प्राकट्य उनकी प्रकृति में नहीं रहा। हाँ, जब भाभी जी भयावह रूप से अस्वस्थ पड़ीं, वह सब काम छोड़कर लगातार उनकी सेवा में समर्पित रहे। उनके ठीक होते ही फिर किसी पंछी की तरह पंख फैलाकर उन्मुक्त आकाश में उड़ान भरने लगे। उनकी कुछ प्रतिनिधि पंक्तियाँ उनके व्यक्तित्व की बड़ी ही सटीक व्याख्या प्रस्तुत करती हैं -

भरी सड़क पर हर मैक़श को
चाहे मेरा चित्र बता दो,
मेरे हर बीमार अहम् का
खुलकर विज्ञापन करवा दो।
लेकिन एक बात कहता हूँ
कवि पर दोष लगाने वालो!
मेरी कविता के दामन पे
कोई दाग़ नहीं पाओगे। 

 डाॅ. शिव ओम अम्बर